क्या वक़्त था,
तुम्हारे लिए जब,
बाग़ से गैंदे का फूल लाया था!
तुम मंत्र्मुग्द सी, देखती रही थी उसे!
गैंदे की हर पत्ती
में सूरज था चमकता!
तुम्हारी हँसी की खनखनाहट में,
चाँदनी की मिशरी थी घुली!
ज़िन्दगी खूब थी तब,
साँसों की हर गिरह में,
खुलती-बंद होती,
साथ थी तुम!
गैंदे के फूल ने,
मुकम्मल कर दिया था हमें!
शीतल झरने के पानी सी,
बहती थी ज़िन्दगी रगों में!
(अब नाम लिया तुम्हारा तो होठों पर चुप सी है.....)
अब यह वक़्त है
कि पगडंडियों पर भटकता फिरता हूँ!
चाँद मुस्कुराता नहीं अब,
काँटों सी चुभती है चाँदनी भी!!
वक़्त कि चंचल लहरों पर बहते-बहते,
जाने कहाँ निकल आया हूँ!
इतनी दूर चला आया हूँ,
कि ज़िन्दगी के कई पन्ने,
यूँ ही अधखुले से,
फड़फड़ाते हुए जान पड़ते हैं!
((ज़िन्दगी खूब थी, दिया था गैंदे का फूल चुपके से तुम्हें....शिकायत नहीं अब भी कोई, इस तन्हाई से....))
कि पगडंडियों पर भटकता फिरता हूँ!
चाँद मुस्कुराता नहीं अब,
काँटों सी चुभती है चाँदनी भी!!
वक़्त कि चंचल लहरों पर बहते-बहते,
जाने कहाँ निकल आया हूँ!
इतनी दूर चला आया हूँ,
कि ज़िन्दगी के कई पन्ने,
यूँ ही अधखुले से,
फड़फड़ाते हुए जान पड़ते हैं!
((ज़िन्दगी खूब थी, दिया था गैंदे का फूल चुपके से तुम्हें....शिकायत नहीं अब भी कोई, इस तन्हाई से....))
August 5, 2012 at 5,51 P.M.
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