इक घर का सपना देखा था,
अपना इक आँगन होगा, ऐसा सोचा था!
बच्चों की खिलखिलाहट गूँजेगी हर ओर,
मन झूमेगा थाम हँसी की डोर!
घर का सपना तो सपना ही रह गया,
जिम्मेदारियों के ढेर में बह गया!
न घर, न घर का आँगन,
न अपना कहने को कोई प्रांगण!
कीकर के काँटों सी फाँस चुब्ती है मन मैं,
घर की आस दबी जब से मन में!
पथरों से बना शहर है खड़ा मुँह बाए,
मैं बैठा हूँ घर की आस बिसराए!
अपना इक आँगन होगा, ऐसा सोचा था!
बच्चों की खिलखिलाहट गूँजेगी हर ओर,
मन झूमेगा थाम हँसी की डोर!
घर का सपना तो सपना ही रह गया,
जिम्मेदारियों के ढेर में बह गया!
न घर, न घर का आँगन,
न अपना कहने को कोई प्रांगण!
कीकर के काँटों सी फाँस चुब्ती है मन मैं,
घर की आस दबी जब से मन में!
पथरों से बना शहर है खड़ा मुँह बाए,
मैं बैठा हूँ घर की आस बिसराए!
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