सोचा तो पाया कि
वे एक-दूसरे से चिपके पुराने काग़ज़ की तरह थे,
जो भीगकर सडक़ पर बिखरे थे।
एक-एक साँस,
साथ खींची और छोड़ी थी।
वक़्त की लकीरों ने,
थोड़ी देर को फक़त रोशनी की थी।
फिर बुझ सा गया था सब।
उनके अंदर तक उतर गयी थी,
रोशनी।
गहरी हो गयी थी,
भीतर तक समां।
फिर हल्की होती गयी।
दोमुँहाँ रोशनियों में,
बट से गये थे दोनों।
अचानक,
काले आसमान से छिटक कर,
अँधेरा,
हल्की धूल की तरह,
इधर से उधर मँडराने लगा।
कुछ अँधेरा,
पास के कोने में बच्चे की तरह दुबका था।
मन को घेरती आशंका और उससे पैदा हुई अस्थिरता,
खुद से खुद को,
जुदा करती,
जलती-बुझती रोशनी,
भीतर की चमक,
ख़त्म करती,
जाने मन के किस कोने में,
छिपी बैठी थी।
इसी ताने-बाने में,
याद आया,
काग़ज़ का वो टुकड़ा,
बांधे रखा था जिसने,
आज जाने किस
भूल-भुलैयां में उन्हें छोड़,
हवा के झोंके संग,
बह गया था।
December 4, 2013 at 6.21 P.M.
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