ख़त्म हुई फौज़दारी,
ताज भी न रहा सिर पर,
घूमते थे वाइस-चांसलरी का डंडा लिये हाथों में,
अब तो इतनी भी इज़्ज़त नहीं बची,
कि माफ़ी माँग लें,
अपने दुष्कर्मों की।
चुप है आज ज़ुबाने खंजर,
जानती है--नहीं बचा कोई, रक्त बहाने को।
ताज भी न रहा सिर पर,
घूमते थे वाइस-चांसलरी का डंडा लिये हाथों में,
अब तो इतनी भी इज़्ज़त नहीं बची,
कि माफ़ी माँग लें,
अपने दुष्कर्मों की।
चुप है आज ज़ुबाने खंजर,
जानती है--नहीं बचा कोई, रक्त बहाने को।
24 June, 2014 at 4.26 P.M.
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