तुझे छू के जो हवा आई है,
तेरे होने का पता देती है!
पत्तों की सरसराहट में,
तेरी आवाज़ सुनाई देती है!
गुलाब की पखुडियों में से,
तेरी खुशबू आती है!
तू है फिर भी तू नहीं!
तुझे महसूस कर सकता हूँ,
पर देख नहीं सकता!
तुझे सुन सकता हूँ,
पर छू नहीं सकता!
अंधियारे गलियारे में
तुझे देखने की कोशिश कर रहा हूँ!
तेरी साँस की गर्मी से
तुझे अपने करीब पाता हूँ!
डरता हूँ कि खो न जाऊं
तेरी गहराईयों में!
उलझ कर रह जाउँगा तेरे वजूद में!
और फिर बिन डोर की पतंग सा
भटकता फिरूँगा यहाँ से वहाँ!
कोई मंजिल नहीं होगी
न कोई साथी न कारवाँ!
बस यूँ मारा-मारा
तेरे अस्तित्व में खोया
खुद को भी भूला बैठूँगा!
सोचता हूँ अपने आप में,
क्यों न दूर रहूँ तुझ से!
शायद कुछ अपना बचा पाऊं मैं!
पर तू नहीं है ग़र मेरी ज़िन्दगी में,
तो क्या बचाना चाहता हूँ मैं?
July 31, 2010 at 9.10 P.M.
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