धुँध में छिपे रिश्ते,
आधे-अधूरे से,
टेड़े-मेड़े,
न दिखते हैं, न ही छिपे रहते हैं!
एक परत सी जम जाती है उन पर!
कभी हाथ से,कभी बातों से,
कभी मन से तो कभी कपडे से,
उस धुँध को हटा,
रिश्तों को ढूँढना पड़ता है!
फिर हाथों में ले,
उन्हें आकार दे,
उन में जान डालनी पड़ती है!
और, धुँध से छटे यही रिश्ते,
फिर अहम् हो जाते हैं ज़िन्दगी के लिए!!!
January 9, 2011 at 4.52 A.M.
What a nice poem! Indeed, you have to constantly keep defining, discovering, re-discovering, re-defining and setting straight the "rishtaas" of life.
ReplyDeleteरिश्तों को ढूँढना पड़ता है!
फिर हाथों में ले,
उन्हें आकार दे,
उन में जान डालनी पड़ती है!
Good powerful lines.