घर से निकले थे काम पर,
कह कर गए, मिलेंगे शाम होते!
राह में नज़र के सामने,
था वीभत्स नज़ारा!
दरिंदों ने फिर किया था वार,
चारों ओर रुद्रण, चीत्कार, हाहाकार!
कहीं खून के लोथड़े,
कहीं कटा हाथ!
कहीं माँ की गोद में बच्चे का धड,
कहीं बच्चे के सामने पिता की लाश!
ज़ार-ज़ार रो रहीं थी आँखें,
कहीं मौत का सन्नाटा!
ज़िन्दगी बिखरी पड़ी थी चारों ओर,
मौत का था नंगा नाच!
जिस्म घायल. रूह छलनी
मन विचलित,
आँखें नम!
क्या कहें कि हो मन की व्यथा कम!
धीरज रख ऐ मन,
होगा इस काली रात का सवेरा भी!!!!!!
September 07, 2011 at 10.05 P.M.
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