याद है क्या तुम्हें,
कहा था इक दिन तुमने:
मन की भाषा को,
दूसरा समझ ले,
बिना कुछ कहे।
इस अनकही को सुन,
मन,
आनंदित हो,
पुलकित हो।
और भाव-विभोर हो,
मिल जायें दोनों इक दूजे से,
जिस तरह क्षितिज पर
मिलते हैं,
धरती-आकाश,
जैसे भावों और सोच के धरातल पर
एक दूसरे से मिल लें
और लीन हो जायें,
इक दूजे में।
क्या बस इतना ही काफी नहीं ...
हवा बन बहते रहे तुम... खोजती तुम्हें, रुकी जब निढाल हो गयी......पा न सकी पर तुम्हें.......
(September 1, 2013 at 11.24 P.M.)
बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना....
ReplyDeleteshukriya Sushma...
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