वक़्त देखो कितनी तेज़ी से चलता जा रहा है,
अपने वेग से उड़ता जा रहा है,
हम हैं कि वहीं के वहीं बैठें हैं,
जाने क्या सोचते रहते हैं,
जीते तो हैं ही नहीं किसी भी पल को,
हर पल इक नयी मौत मरते रहते हैं,
बस वक़्त काटते रहते हैं,
और यह बेदर्द व़क़्त हमें ही काटता रहता है,
कहीं पहुँच नहीं पाते,
न ही कहीं पहुँचने की तमन्ना रखते हैं,
बस गुज़ारते रहते हैं यूँ ही ज़िंदगी,
बिना कुछ पाये,
सब गवायें बैठे हैं,
न किसी को अपना बना सकते हैं,
ना किसी के हो सकते हैं,
फिर वक़्त हथेली से,
रेत की मानिंद बिखर जाता है,
और हम उसका गुबार देखते रहते हैं.......
(.... इक दिन सब मिट्टी में मिल जाना है, बस हम ही नहीं समझ पाते हैं....)
September 18, 2013 at 12.04 A.M.
बेहतरीन अभिवयक्ति.....
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