कैसा यह शहर है,
इंसान हैं, पर दिल नहीं।
दोस्त हैं, पर दोस्ती नहीं।
हर कोने में मक़ान हैं,
घर तो दिखते ही नहीं।
खटखटाया था इक मक़ान का दरवाज़ा,
ईमां की दीवारें ढह रही थीं।
ज़िंदगी रेत की मानिंद,
हाथों से फिसलती दिखी।
झूठे रिश्तों पर टिका,
हर बाशिन्दे का महल दिखा।
आँखों में रोशनी तो दिखी,
पर प्यार की सच्चाई नहीं दिखी।
कैसा यह शहर है,
इंसान हैं, पर दिल नहीं।
आसमां तो दे देते हैं,
पाओं तले से ज़मीं खींच लेते हैं।
सीने में दिल तो है शायद,
प्रेम का दिया जलता नहीं।
तलाशता है हर आदमी,
अरमानों का खूं करने को।
मोहब्बत जो आँखों तक पहुँच जाए,
ऐसे जज़्बात दिखते नहीं।
(लौट जाती है दीवारों से टकरा कर आवाज़ें.....दिलों की धड़कन कोई पहचानता नहीं............)
September 30, 2013 at 12.42 A.M.
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