ज़ख़्मी कबूतर ने,
तुम्हें ऐसा घाव दिया,
कि उसका ज़ख़्म.
तुम्हारी आँखों से बह निकला।
पहली बार जब दुख देखा,
तुम्हारी रूह तक काँप गयी।
बीमार को देख,
तुम्हारी अंतरात्मा तक बीमार हो गयी।
मौत ने ऐसा झंझोड़ा,
कि तुम सत्य की खोज में निकल पड़े।
मुड़ कर एक बार नहीं देखा,
कि मैं, यशोधरा, स्तब्ध, निशब्द,
तुम्हें रोक भी न पाई।
तुम बुद्ध हो गये।
मेरी न ख़त्म होने वाली खोज,
आरम्भ हो गयी।
तुम दुखों का अंत,
ढूँढने निकल पड़े।
अकेलेपन से जुड़े,
मेरे दुखोँ का प्रारंभ हो गया।
तुम शाँत हो गये,
मेरे ग़मों की उग्रता को,
कोई देख नहीं पाया।
(October 2, 2013 at 8.26 P.M.)
सार्थक अभिवयक्ति......
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