सच्चाई बिकती है सरे बाज़ार
एक नहीं हज़ार बार
इन्सां जब अपनी पर उतर आता है
अपने हर इक झूठ से, इश्वर को शर्मसार करता है
बोली लगती है इन्सां के संसार में इश्वर की
टके भाव बिकती है इंसानियत भी
इंसान को ही नहीं आती शर्म बस
साड़ी क़ायनात शर्माती है उसकी करनी से हर वक़्त
बेच रहा है दीन-ओ-ईमां
हर पल, हर घड़ी
क्या पायेगा मालूम नहीं
बिकता चला जा रहा है पैसे की होड़ में
खुद को बेचता
हर इक को रोंद्ता
सब बिकाऊ है
बोली लगती रहेगी........
December 24, 2010 at 11.27 P.M.
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