खोई हुई, गुमसुम
वह बैठी रही।
और, शाम को गुज़रते हुए
उसे पता था
कि जिसका उसे इंतज़ार था,
वो नहीं आएगा।
और
वक्त यूं ही
बीतता/ गुज़रता चला जाएगा।
पर, खोई हुई, गुमसुम वह बैठी रही।
और
शाम को रात में ढलते हुए देखती रही।
वह जानती थी
कि उसके अरमां
कभी पूरे नहीं होंगे।
पर फ़िर भी,
हर ख़्वाहिश के
पूरे होने का सपना,
वह देखती रही।
खोई हुई, गुमसुम
वह रात के अंधेरे को
और गहरा होते हुए देखती रही।
उसे नहीं पता था कि सुबह होगी।
पर,सुबह होने का ख़्वाब
वह देखती रही।
खोई हुई, गुमसुम
वह बैठी रही।
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