मैं जी रही हूँ,
भोग रही हूँ ,
इस जीवन के समस्त सुखों को!
मेरे भीतर एक अथाह प्रेम का सागर है,
जो बेकरार है बाहर आने को!
यह प्रेम जो स्वार्थी नहीं है!
जो केवल देना चाहता है,
खुशियाँ!
जो बाँटना चाहता है ,
दर्द!
जो चाहता है,
समां जाना ,
किसी के भीतर!
और विलीन हो जाना चाहता है उस में,
जैसे नदी विलीन हो जाती है सागर में!
और भूल जाती है,
अपना अस्तित्व!
क्योंकि सागर ही तो
उसका पूरक है!
मेरे भीतर का अथाह प्रेम
सागर के लिए ही तो है!
जो समेट लेगा मुझे अपने आँचल में
और मेरे इस अथाह प्रेम को मकसद देगा
जो बेकरार है सागर में विलीन होने को!!!(07.03.2010)
No comments:
Post a Comment