रोज़ लफ़्ज़ों की इमारत बनाता हूँ
फिर उसमें साँसें फूँक उसे जिंदा करता हूँ
काली रात के अँधेरे में
वो डह जाती है
दिल-ए-नादाँ को समझाता हूँ
संभल जा,मान जा
पर दिल है कि संभलता ही नहीं
और अगले दिन फिर से लफ़्ज़ों की इमारत बनाता हूँ!!!!
August 06, 2010 at 12.16 A.M.
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