मैं क्यों कपडे पहनता?
मैं किस से क्या छिपाता?
मेरे भीतर जो है,
वो बाहर नहीं!
भीतर की सब बातें,
यदि बाहर आयें तो,
एक विवाद उठ खड़ा होगा!
भीतर छिपे राक्षस
बाहर आ उत्पात मचाएँ तो?
धरती लहू-लुहान हो जायेगी!
आसमान चीत्कार कर उठेगा!
मेरे अंतर्मन के द्वंद्व को,
कौन समझ पायेगा?
रहने दो इसे मेरे भीतर ही,
इसे बाहर मत आने दो!
ढका रहने दो इसे बाहरी कपड़ों से!
कुछ तो सफ़ेद-पोशी बनी रहने दो!
जो छिपा है उसे छिपा ही रहने दो!
मत छेड़ो,इसे भीतर ही रहने दो!!!!
August 21, 2010 at 6.52 P.M.
No comments:
Post a Comment