आसमान की बुलुंद ऊँचाइयों में
बिना रोक-टोक के
स्वछन्द विचरता मन
आसमान के विस्तार को निहारता
पँखों के सहारे
यहाँ से वहाँ
आज़ाद घूमता
अपने आप में सोचता है--
ऐसी आज़ादी धरती पर क्यों नहीं?
क्यों बेड़ियों में
जकड़ा हूँ मैं?
क्यों नहीं कर सकता
स्वेच्छा से मैं
वो सब जो करना चाहता हूँ?
क्यों बंधन हैं सिर्फ मेरे लिए?
मैं नहीं मानना चाहता
इन बंधनों को!
मैं निकल कर इन जंजीरों से
यूँ ही स्वछन्द घूमना चाहता हूँ
खुले आकाश की तरह धरती पर!
August 20,2010 at 2.35 P.M.
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