कितने 'मैं' मेरे भीतर
और उतने ही बाहर!
भीतर का 'मैं' जीने नहीं देता!
बाहर का 'मैं' कुछ करने नहीं देता!
इसी सोच में निकल जाएगा जीवन,
और कुछ सुलझ नहीं पाएगा!
दोनों का समावेश
सुलझाएगा
बाहर और भीतर के अंतर्द्वँव को,
और जीवन के ताने-बाने को
करेगा सार्थक!!
August 26,2010 at 6.23 P.M.
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