मंद हवा की तरह
गालों को सहलाती
तितली की तरह
यहाँ से वहाँ उड़ती फिरती
एक अल्हड़ मौज
जो किनारे को छू लौट आती
मन में जवानी की लहक
आखों में यौवन की चमक
साँसों में जीवन की महक
इसी लहक, महक, चहक में
बचपन कहीं पीछे छूट गया
उड़ती आज भी हूँ
पर पंखो का रंग फीका पड़ गया है
चहकती हूँ
पर दर्द छुपा नहीं पाती
जीवन की सड़न है
अब महक में
टूटे हुए सपने
रिसते हैं हर पल
April 07, 2011 at 4.14 P.M.
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