उसकी रज़ा मान,
मैं चलती रही!
न पैरों के छाले देखे,
न उनसे रिसता खून ही दिखा!
छलनी हाथों से राह के,
काँटे हटाती रही!
जानती थी वो मेरे साथ है!
छालों से रिसता खून मेरा न था!
हाथों में काँटों की चुभन भी मेरी न थी!
जानती थी की वो दयावान है!
मन में उसकी उदारता का विश्वास लिए,
मैं चलती रही!!!!
April 10, 2011 at 5.36 P.M.
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