ज़िन्दगी की उधेड़-बुन में,
कभी मैं उलझी, कभी वक़्त उलझा!
सुई-धागे से,
चाक-ए गिरेबाँ सिलती रही!
थी अजीब सी उधेड़-बुन में,
कच्चा था धागा जान नहीं पायी!
वो कब आया, कब गया, क्या कह गया,
इसी उधेड़-बुन में, कुछ समझ न पायी!!!
शायद वहीँ रास्ते में रह गया कहीं,
कच्चे धागे की डोर से उसे बंधा न रख पायी!
ख्वाबों के सलमे-सितारे टाँकने थे उस धागे से,
न-उम्मीदी की कश-म-कश में,
न ख्वाब. न धागा,
न ज़िन्दगी ही बचा पायी!!!
(टूट गया है धागा, सुई को भी जंग लग गया है--उँगली है लहू-लुहान..ख्वाब हो गए हैं बोझिल--तुम अभी भी कहते हो मुझे सिलना नहीं आता.......
July 04, 2012 at 3.17 A.M.
No comments:
Post a Comment