ज़िन्दगी ठहर सी गयी है,
किसी के इंतज़ार में,
किसी ख्याल में गम-सुम और खामोश,
कुछ सोच रही है!
किसी भी हड़बड़ी से बहुत दूर,
बस हौले-हौले बहने वाले दरिया के,
कल-कल के समीप सरक रही है,
पुरानी यादों के आगोश में सिमट रही है!
पिछले कुछ दिनों से लगता है,
मैं खुद को तलाशते हुए,
किसी गली में भटक रही हूँ,
जिसके ओर-छोर का कोई अंदाज़ा नहीं!
बस एक हैरानी और विस्मृति का भाव,
चेहरे पर तैरता रहता है!
अचानक से याद आता है--
अरे कहाँ खो गयी मैं?
मुझे उस समय के बारे में कोई स्मरण नहीं,
जैसे मैं नहीं कोई और ,
जी रही थी मेरी ज़िन्दगी,
जिस पर मेरा कोई जोर न था!
एक वीणा की तरह झंकृत और तरंगित,
किसी और के हाथों,
बिना कोई शिकवा या शिकायत,
और कोई सवाल भी नहीं!
अचानक तुमने कहा-
"जीत तो मेरी ही हुई न आख़िर!"
(मैं हैरान थी, मेरे चुप रहने से तुम्हारी जीत कब हुई????)
July 05, 2012 at 4.53 P.M.
inspired by Maya Mrig's post-----जीत के जश्न की तैयारी कर लो, आती ही होगी खबर तुम तक....हमें जो हारना था....हार चुके...
बहुत ही सहज शब्दों में कितनी गहरी बात कह दी आपने..... खुबसूरत अभिवयक्ति....
ReplyDeleteshukriya Sushma...
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