तुमने लिखने को कहा,
तुम्हारे ही लिए!
लिखना चाहती हूँ,
भूमिका एवं उपसंहार के साथ!
जो मन में है,
सब पन्नों पर उतार देना चाहती हूँ!
शब्दों में बाँधना चाह रही हूँ तुम्हें,
पर जाने क्यों संभव नहीं हो पा रहा बाँधना तुम्हें!
कागज़-कलम ले बैठ गयी हूँ,
शब्द भाग रहे हैं इधर-उधर,
मुझ से पीछा छुड़ा!
कभी छिप रहे हैं किसी कोने में,
कभी जा बैठे हैं अलमारी के पीछे!
सामने आते हैं, पकड़ना चाहती हूँ,
पर जाने क्यों संभव नहीं हो पा रहा पकड़ना इन्हें!!
ढूँढ रही हूँ वो शब्द,
तुम्हें न्याय दे सकें जो!
पिरोना चाहती हूँ शब्दों को अपनी सोच में,
तुम्हें देना चाहती हूँ तोहफे में,
पर जाने क्यों संभव नहीं हो पा रहा पिरोना उन्हें!!!
(महसूस कर सकती हूँ तुमें हर साँस में.. शब्दों में कैसे बाँध लूँ तुम्हें.....)
(( न भूमिका में, न उपसंहार में, कैद नहीं कर सकती तुम्हें शब्दों में.....))
July 15, 2012 at 5.13 P.M.
मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
ReplyDeletethanks a lot....
ReplyDelete