गहन पीड़ादायक अनुभवों से गुज़र,
वेदनाओं से झूझते हुए,
यातनाओं के पुल को पार,
जहाँ बसाया था हमने!
प्रेम के शीतल जल के छींटों-सा, ,
ताज़गी भरा एहसास,
छू-छूकर गुज़रता था!
मधुरतम गानों के स्वर,
गूँजते थे हर ओर!
तुम्हारे अनमोल बोल,
उतर गए थे जो अंतर्मन में!
काँपती उँगलियों से,
छुआ था जब तुमने,
हज़ारों सितारों की तरंगें सा,
बज उठा था पोर-पोर!
कही-अनकही बातें,
आज फिर आतुर हुईं हैं!
कभी तृप्त हुए मन की वेदना,
आज फिर उभर आई है!
तुम्हारे साथ गुज़ारे,
क्षणों की अनुभूति ने,
आज फिर झंझोड़ दिया है!
(माप-दंड क्या करना, क्या सही क्या गलत---- होने न होने का क्या संशय--जब यकीं है कि तुम हो----------)
((हर वेदना को अपनी “सेंसिबिलिटी” से जितनी शिद्दत से महसूस किया कह दिया----तुम्हारी अनकही बस अनकही ही रह गई------))
June 4, 2013 at 8.55 P.M.
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