मेरे अचेतन मन में,
तुम्हारे होने के भाव उठे!
शब्दों से,
निशब्द हो भी,
मैंने पुकारा तुम्हें!
मेरे उन शब्दों-निशब्दों की,
प्रतिध्वनि बन जाना तुम!
सर्द रातों में,
मुझे छू जाने वाली,
हवाओं में घुल जाना तुम!
स्मृति की वादियों में,
जब मेरे प्रेम का बदन,
ठंडा पड़ने लगे,
अपने एहसास की गर्मी से,
मुझे फिर से ज़िंदा कर जाना तुम!
सावन की पुरवाई में,
मेरे मन के घावों पर,
मरहम लगा जाना तुम!
पीड़ा जब हद से गुजरने लगे,
मेरी हर धड़कन में समां,
मुझे फिर से ज़िंदा कर जाना तुम!!!
(स्वपन से जागा नहीं शायद मैं--- मेरी पलकों में डोलती तुम्हारी मुस्कराहट, आँखें खुलने पर घुल जाती है फिज़ाओं में.....................)
June 4, 2013 at 11.37 P.M.
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