शब्दों के संग,
शब्द-रहित,
हर तरह से प्रेम किया हमने!
जब नाममात्र के लिए भी शब्द नहीं थे,
मौन था,
व्याख्यान देता हुआ भी,
व्याख्यान के पीछे छिपा भी,
प्रेम ही तो था!
राग गाता हुआ भी,
राग के सुर के भीतर पड़ा भी,
प्रेम ही तो था!
मृदु वचनों की मिठास में,
लरजते होठों की कंपकंपाहट में,
खामोश आँखों की इबादत में,
प्रेम ही तो था!
लहरों का चुप-चाप,
पत्थरों को छू जाना,
प्रेम ही तो था!
न काला, न नीला,
न पीला, न सफेद,
न पूर्वी, न पश्चिमी,
न उत्तरी, न दक्षिणी,
बे-नाम, बे-निशान, बे-मकान,
विशाल,
मौन रूप से,
अपनी निशब्दता से,
सुगन्ध फैलाता,
प्रेम ही तो था!
मौन से प्रसूत प्रेम,
जैसे तीक्ष्ण गर्मी से जले भुने व्यक्ति का,
काले बादलों की बूँदाबाँदी से शीतल हो जाना!
जैसे थरथराती उँगलियों को,
तुम्हारे शरीर की छुअन का मिलना!
जैसे पत्तों पर,
ओस की बूँदों का गिरना!
(प्रेम की भाषा शब्द-रहित है------ नेत्रों की, कपोलों की, मस्तक की भाषा भी शब्द-रहित है---- जीवन का तत्व भी शब्दों से परे है-------)
((शब्द-रहित मौन, प्रेम की निश्छल कविता-- धूप में टहलते शीतल बादलों की छाया-- ))
June 8, 2013 at 12.47 A.M.
Nice Poetry...
ReplyDeletethank you Surinder Singh ji.
ReplyDeleteVery good i understand
ReplyDeleteWhere is the f**king explaination 😒
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