झुलसती धूप में,
रेत पर नंगे पाँव चलती रही!
कहीं किसी ने कोई छाया न दी!
दिल के अँगारे,
दिल से निकल,
हथेलियों को जला रहे थे!
पूरा बदन आग उगल रहा था!
जाने कहाँ से खिरनी का पेड उग आया था,
मरूथल में!
चल पड़ी थी उसी की छाँव की ओर,
ज़ख्मीं पैरों से!
छाँव तो नहीं थी,
जो तपती रूह को तृप्त करती!
पर अपनी सूली उठा,
खुद ही निकल पड़ी थी,
अपने दिल के बोझ को हल्का करने!!!!
April 15, 2012 at 10.21 A.M.
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