तुमसे दबी ज़ुबां से कहा,
फिर होले से मुस्कुरा कर भी कहा!
नज़रें तुम्हारी ओर उठा कर कहा,
दांतों तले ऊँगली दबा कर कहा!
सूरज की हर किरण ने कहा,
बदल की इक-इक बूँद ने कहा!
तुम समझ गए!!
फिर इक दिन बस तुम्हारी ओर देखा,
सोचा था समझ जाओगे!
पर तुम्हारी आँखें पढ़ नहीं पाईं,
मेरी आँखों की भाषा!
तुम अजीब आँखों से देखते रहे,
अजनबी से ताकते रहे!
तुम्हारी आँखों की ज़ुबां मैं समझ गयी!!
समझ गयी,
जो तुम कह कर नहीं समझा पाए!
मेरी चुप्पी नहीं समझ पाए तुम,
तुम्हारी आँखों से निकले शब्द चीरते गए!
रेत और पानी से थे तुम्हारे शब्द और मेरी चुप्पी,
न मिलना था, न मिल ही पाए!
तुम्हारे शब्द बहा ले गए मेरे प्यार को,
मेरी चुप्पी में साँस घुट गयी तुम्हारे प्यार की!!
शायद मेरी आँखों का बोलना समझ नहीं पाए तुम,
तुम्हारी आँखों की चुप्पी ने तार-तार कर दिया जिगर को!
अब चाक गिरेबाँ लिए भटकते हैं दर-बदर,
कि दीदार-ए यार हो तो पूछें,
क्या अभी भी अनजान हैं आप,
हमारी चुप्पी की भाषा समझने से??????
April 7, 2012 at 1.54 A.M.
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