इक प्यास है मन में,
किसी चश्मे के शीतल जल से नहीं बुझती!
चश्मा-ए-अमृत है धरती के गर्भ में समाया,
जहाँ तक कोई राह नहीं ले जाती!!
उसकी सरगोशी भरी आवाज़ कानों में पड़ती है,
मानो कह रही हो: " मेरे पास आओ! सब ठीक हो जाएगा!"
मेरा मन तो भारी है!
तुम्हारे न होने से परेशान है!
सोचा था कि प्यास एक जैसी होगी हम दोनों की,
तुमने कहा: " कुआँ मैं खोदूँगा तो पानी भी मेरा!"
पता नहीं फ़र्क कैसे आया हम दोनों में--
तुमने कुआँ खोदा औजारों से,
मैंने तो सब दे दिया था अपनी प्यास को....
और जो बचा ....उसे भी ना संभाल पाए तुम ?
किसी चश्मे के शीतल जल से नहीं बुझती!
चश्मा-ए-अमृत है धरती के गर्भ में समाया,
जहाँ तक कोई राह नहीं ले जाती!!
उसकी सरगोशी भरी आवाज़ कानों में पड़ती है,
मानो कह रही हो: " मेरे पास आओ! सब ठीक हो जाएगा!"
मेरा मन तो भारी है!
तुम्हारे न होने से परेशान है!
सोचा था कि प्यास एक जैसी होगी हम दोनों की,
तुमने कहा: " कुआँ मैं खोदूँगा तो पानी भी मेरा!"
पता नहीं फ़र्क कैसे आया हम दोनों में--
तुमने कुआँ खोदा औजारों से,
मैंने तो सब दे दिया था अपनी प्यास को....
और जो बचा ....उसे भी ना संभाल पाए तुम ?
June 03, 2012 at 12.30 A.M.
सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteshukriya Sushma....
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