भौतिक शरीर की लालसा,
देह की पिपासा,
बरसों बीत गए,
इसे बुझाने में!
कभी दौलत से,
तो कभी मकानों से,
कभी शरीर की भूख,
कभी मन का लालच!
जाने क्यों नहीं उठ पाया,
इन से ऊपर!
सोचता था,
यही है सब,
इसी से मिलेगा स्वर्ग!
आज जब खुद से बात की,
तो पहचाना,
नश्वर है सब,
सब मिट्टी में है मिल जाना!
मूर्ख था,
न समझ पाया,
इस गूढ़ सत्य को,
आत्मा परे है इन सब से,
उसी निराकार का हिस्सा है,
जिस ने बनाया है सब को!
इक अजीब सा नशा है,
इस भौतिकता से परे,
इक ख़ुशी, इक शांति,
इक सकूँ, इक ठहराव!
अब जो चल पड़े हैं इस सफ़र पर ऐ दिल-इ-नादाँ....मंजिल तो पा ही लेंगे हम.............
शरीर तो जल जाएगा, ख़त्म हो जाएगा--आत्मा चिरायु है--कभी नष्ट नहीं होगी... मिलाएगी वोही उस परमात्मा से, जिसने जन्म दिया था इस आत्मा को, एक नए शरीर में, इस संसार को भोगने के लिए......
June 20, 2012 at 2.56 A.M.
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