हलकी सी आवाज़ हुई,
वो कांप गयी!
हाथ उठते-उठते रुक गया,
चेहरे का रंग फक पड़ गया!
'क्या मेरी जासूसी करती हो?'
जवाब कहते न बन पाया!
उसके शब्द-भेदी बाण,
नश्तरों की तरह सीने में उतरते रहे!!
उसे नोच वो चला गया,
उसके लिए कुछ न रह गया!
ग़मों की दोपहरी ओढ़,
स्वयें में सिमटी वो,
दुबक पड़ी रही!
स्याह काली रात के अँधेरे से घने
ग़मों तले दबी वो,
दिल की धडकनें रुकने का इंतज़ार करती वो!!!!
August 30, 1.34 A.M.
बहुत ही मार्मिक अनोखे ढंग से लिखी बेमिसाल रचना /बहुत बधाई आपको /
ReplyDeleteplease visit my blog.
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thanks
अस्पष्ट से भाव ...
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeletebahut badhiya...
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