मात्र औपचारिकताएँ ही रह गयी हैं अब रिश्तों में!
ढोये जा रहे हैं ऐसे रिश्ते,
जिन में कोई प्रेम,
कोई अपनापन नहीं!
रिस नहीं रहे,
न कोई गंध है!
पर खुश्बू नहीं,
न कोई आत्मीयता है!
कभी समाज के लिए,
कभी बच्चों के लिए,
रेल की दो पटड़ियाँ,
जो साथ हैं,
पर कभी मिल नहीं पाएँगी!
अपने लिए तो सोचा ही नहीं,
अपने लिए तो जिया ही नहीं!
बस औपचारिकता भरा रिश्ता ढोया!
ढोये जा रहे हैं ऐसे रिश्ते,
जिन में कोई प्रेम,
कोई अपनापन नहीं!
रिस नहीं रहे,
न कोई गंध है!
पर खुश्बू नहीं,
न कोई आत्मीयता है!
कभी समाज के लिए,
कभी बच्चों के लिए,
रेल की दो पटड़ियाँ,
जो साथ हैं,
पर कभी मिल नहीं पाएँगी!
अपने लिए तो सोचा ही नहीं,
अपने लिए तो जिया ही नहीं!
बस औपचारिकता भरा रिश्ता ढोया!
कब पचास के पार हो गया,
पता ही नहीं चला!
कब ज़िन्दगी पास से गुज़र गयी,
एहसास ही नहीं हुआ!
कुछ लम्हे छू गए ज़िन्दगी के,
उनका एहसास आज भी मन को हर्षित करता है!
पता ही नहीं चला!
कब ज़िन्दगी पास से गुज़र गयी,
एहसास ही नहीं हुआ!
कुछ लम्हे छू गए ज़िन्दगी के,
उनका एहसास आज भी मन को हर्षित करता है!
अब खुद के साथ वक़्त बिताना भाता है,
औपचारिकताओं से परे,
अपने में अपनापन है,
बस अपने लिए!
औपचारिकताओं से परे,
अपने में अपनापन है,
बस अपने लिए!
(January 3, 2017 at 1.15 A.M.)
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