रूढ़ीवाद तले दबी मेरी कविता,
ढूँढती अपनी अस्मिता!
हर शख्स इसका गला घोंटने को तत्पर,
सब जुटें हैं इसको मारने परस्पर!
नहीं चाहते कि इसकी आवाज़ हो,
माँगते इसका अस्तित्व ख़त्म हो!
आवाज़ होगी तो ध्यान भी देना होगा,
इसे सुन कुछ करना होगा!
कहते हैं चुप रहो,
सब मुँह बंद किये सहो!
तुम्हें हक नहीं कि तुम कुछ कहो,
तुम केवल अंतर्मन के बंद कमरों में रहो!
मैं कैसे अपनी कविता की आवाज़ बंद कर दूं,
क्यों न उसे बाहर आने दूं?
मेरी कविता मेरी पहचान है,
मेरे साँस लेने का सामान है!
दबा लो जितना चाहे मेरी कविता को,
वो बाहर आएगी तुम्हें झंझोड़ने को!
बच न पाओगे उसकी आवाज़ से,
भेद देगी तुम्हें अपने अंदाज़ से!
अब दबा न पाओगे मेरी कविता को,
तुम चाहे जितनी कोशिश कर लो!
मेरी कविता है तो मैं हूँ,
और मैं हूँ तो संसार है!!!!
July 20, 2011 at 11:57 A.M.
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