तुम्हारी सच्चाईयाँ मेरा हक़ थीं,
तुम इनसे कब ग़ुरेज़ करने लगे!
मेरे हक़ों को तुमने फ़र्ज़ के नाम दे दिए,
मैंने तब भी उफ्फ़ नहीं की!
फ़र्ज़ तो सब पूरे कर दिए,
अब मुझे मेरे हक़ों के लिए जीने दो!
नहीं माँगती तुमसे कुछ इस के सिवा,
अपनी और मेरी सच्चाइयों संग,
मेरे हक़ों और तुम्हारे दिए फर्जों संग,
मुझे खुली हवा में सांस लेने दो!
इस विशाल आसमां तले,
जी भर जी लेने दो!!!
July 31, 2011 at 10.39 A.M.
(This poem is inspired by Maya Mrig's status:
ये सच थे कुछ-- मैंने हक की तरह चुन लिए---ये बचे हैं जो---तुम फर्ज की तरह सहेज लो--)
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