बंद कमरे में क्षत-विक्षित पड़ी नारी
तार-तार, लहू-लुहान,
हसरत से उस झरोखे को ताकती,
जिस में से आया था आज़ादी का झोंका कभी!
आज मर्द ने फिर से अपनी मर्दानगी दिखाई,
उस झरोखे को बंद कर अपनी ताक़त दिखाई!
कहा, "तेरी नियति यही है,
तू बंद कमरे में रह!"
घुट-घुट मरती रही वो,
खून के आंसूं पीती रही वो!
खुली हवा में सांस लेना चाहती थी वो,
आज केवल मर्यादा निभाती,
जीना भूल चुकी है वो!!!
July 14, 2011 at 12:14 P.M.
[this poem is inspired by Maya Mrig's post---बंद कमरे में गलती से छूट गया झरोखा आज बंद कर दिया, अब तू रक्षित है, यह तेरी मर्यादा है स्त्री....Thursday(July 14, 2011) at 10:26a.m.]
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