तुम और मैं,
दो हैं,
पर दो नहीं!
एक होने की कोशिश!
दो अधूरे,
पूरे होने के लिए,
एक दूसरे का हाथ थामें,
निकल पड़े हैं,
इक अनजानी डगर की ओर,
जिसका रास्ता काँटों से हो कर गुज़रता है,
जिसकी मंजिल का पता नहीं!
फिर भी चल पड़े हैं साथ,
उस अनजानी मंजिल की ओर,
जो ले जाती है समय से परे,
कहीं दूर,
एक अजीब से संतोष की ओर,
जिस में न दुःख है,
न तकलीफ,
बस इक दूसरे का साथ है!
July 25, 2011 at 4.39 P.M.
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