रात के काले अँधेरे के साए में,
मैं दुबक के इक कोने में बैठा था!
कहीं भूतों के साए थे,
और कहीं अतृप्त आत्माओं की सिसकियाँ!
मेरी आत्मा इस चीख-ओ-पुकार से,
मेरे अंतर्मन में और दुबकती जा रही थी!
अचानक मेरी आत्मा की गहराईओं से इक आवाज़ आई:
'क्या हुआ है तुझे?
क्यों इस तरह बैठा है?
मेरी ओर देख,मैं तेरे साथ हूँ!'
सब चीख-ओ-पुकार ख़तम हो गया,
ऐसे जैसे मनो कभी था ही नहीं!
तब समझ में आया,
कि सच्चे मन से उस निराकार में
लौ लगाने का मतलब ही जीवन है!(07.06.2010)
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