घर की दर-ओ-दीवार,
माँ का लाड़,
पिता का प्यार,
आज भी याद आता है,
तो मैं फिर वही
नन्हीं-सी बच्ची
बन जाती हूँ!
दुनिया की नज़रों में,
बहुत बड़ी हो चुकी हूँ!
पर माता-पिता के
प्यार-ओ-दुलार के लिए
अभी भी बची हूँ!
नहीं चाहती कभी भी बड़ा होना,
उनके सामने,
कि कहीं मुझे बड़ा समझ,
उनका दुलार कम न हो जाए मेरे लिए!
जानती हूँ स्वार्थ है इस में मेरा,
पर उनके दुलार के लिए,
स्वार्थी कहलाना भी मंज़ूर है मुझे!!!!
June 9, 2010 at 2.06 P.M.
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