तुम्हारी सच्चाईयाँ मेरा हक़ थीं,
तुम इनसे कब ग़ुरेज़ करने लगे!
मेरे हक़ों को तुमने फ़र्ज़ के नाम दे दिए,
मैंने तब भी उफ्फ़ नहीं की!
फ़र्ज़ तो सब पूरे कर दिए,
अब मुझे मेरे हक़ों के लिए जीने दो!
नहीं माँगती तुमसे कुछ इस के सिवा,
अपनी और मेरी सच्चाइयों संग,
मेरे हक़ों और तुम्हारे दिए फर्जों संग,
मुझे खुली हवा में सांस लेने दो!
इस विशाल आसमां तले,
जी भर जी लेने दो!!!
July 31, 2011 at 10.39 A.M.
(This poem is inspired by Maya Mrig's status:
ये सच थे कुछ-- मैंने हक की तरह चुन लिए---ये बचे हैं जो---तुम फर्ज की तरह सहेज लो--)
CLOSE TO ME
My friends,
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................
Sunday, July 31, 2011
Monday, July 25, 2011
अनजानी डगर....
तुम और मैं,
दो हैं,
पर दो नहीं!
एक होने की कोशिश!
दो अधूरे,
पूरे होने के लिए,
एक दूसरे का हाथ थामें,
निकल पड़े हैं,
इक अनजानी डगर की ओर,
जिसका रास्ता काँटों से हो कर गुज़रता है,
जिसकी मंजिल का पता नहीं!
फिर भी चल पड़े हैं साथ,
उस अनजानी मंजिल की ओर,
जो ले जाती है समय से परे,
कहीं दूर,
एक अजीब से संतोष की ओर,
जिस में न दुःख है,
न तकलीफ,
बस इक दूसरे का साथ है!
July 25, 2011 at 4.39 P.M.
दो हैं,
पर दो नहीं!
एक होने की कोशिश!
दो अधूरे,
पूरे होने के लिए,
एक दूसरे का हाथ थामें,
निकल पड़े हैं,
इक अनजानी डगर की ओर,
जिसका रास्ता काँटों से हो कर गुज़रता है,
जिसकी मंजिल का पता नहीं!
फिर भी चल पड़े हैं साथ,
उस अनजानी मंजिल की ओर,
जो ले जाती है समय से परे,
कहीं दूर,
एक अजीब से संतोष की ओर,
जिस में न दुःख है,
न तकलीफ,
बस इक दूसरे का साथ है!
July 25, 2011 at 4.39 P.M.
हारकर देखा कभी----?
वो उसकी तरफ देखता रहा,
वो भी देखती रही!
वो नज़रें झुका, चली गयी,
वो तब भी उसकी तरफ देखता रहा!
बरसों बाद वो अचानक सामने दिख गयी,
समय के थपेड़ों से थीं झुरियाँ पड़ गयीं!
मन में इक कसक सी उठी,
'शायद गर मेरे साथ होती, तो यूं लुटी-लुटाई न दिखती कभी!'
सोचता रहा उसके बारे में दिन भर,
आदमी ने क्या पाया उसे हरा कर?
कहता है कि हारता हूँ उस से सदा,
नहीं जानता कि है हकीकत क्या?
औरत को हरा, खुद से न जीत पायेगा कभी,
नहीं जानता क्या ये अभी भी?
क्या औरत की हार, क्या मर्द की जीत,
हार-जीत का भी है इक अतीत!
July 25, 2011 at 1.55 P.M.
वो भी देखती रही!
वो नज़रें झुका, चली गयी,
वो तब भी उसकी तरफ देखता रहा!
बरसों बाद वो अचानक सामने दिख गयी,
समय के थपेड़ों से थीं झुरियाँ पड़ गयीं!
मन में इक कसक सी उठी,
'शायद गर मेरे साथ होती, तो यूं लुटी-लुटाई न दिखती कभी!'
सोचता रहा उसके बारे में दिन भर,
आदमी ने क्या पाया उसे हरा कर?
कहता है कि हारता हूँ उस से सदा,
नहीं जानता कि है हकीकत क्या?
औरत को हरा, खुद से न जीत पायेगा कभी,
नहीं जानता क्या ये अभी भी?
क्या औरत की हार, क्या मर्द की जीत,
हार-जीत का भी है इक अतीत!
July 25, 2011 at 1.55 P.M.
Friday, July 22, 2011
तुम क्या जानो?????
औरत हँसे तो बेहयाई,
मर्द हँसे तो वाह तेरी खुदाई!
मेरे हँसने भर पर भी कटाक्ष करते हो,
स्वयं कितने अस्वीकार्य काम करते हो!
चिल्लाते हो गर ऊँगली में दर्द हो,
दर्द की परिभाषा तुम क्या जानो!
अधिक दर्द है तुम्हारे व्यंग्य में,
जो नहीं पाया था तुम्हें पैदा करने में!
July 22, 2011 at 5:38 P.M.
This poem is inspired by Maya Mrig's post:
वह हंसा---खुली हंसी--- (वाह कितना हंसमुख है, खुले दिल का)
वह हंसी--- खुली हंसी----(कितनी बेहया है, शर्म तो बेच खाई इसने)
मर्द हँसे तो वाह तेरी खुदाई!
मेरे हँसने भर पर भी कटाक्ष करते हो,
स्वयं कितने अस्वीकार्य काम करते हो!
चिल्लाते हो गर ऊँगली में दर्द हो,
दर्द की परिभाषा तुम क्या जानो!
अधिक दर्द है तुम्हारे व्यंग्य में,
जो नहीं पाया था तुम्हें पैदा करने में!
July 22, 2011 at 5:38 P.M.
This poem is inspired by Maya Mrig's post:
वह हंसा---खुली हंसी--- (वाह कितना हंसमुख है, खुले दिल का)
वह हंसी--- खुली हंसी----(कितनी बेहया है, शर्म तो बेच खाई इसने)
अनुगामी
वो बोलता रहा,
वो सुनती रही!
वो शब्दों के नश्तर चलाता रहा,
वो चुप सहती रही!
"मेरी बांदी है तू," वो बोला!
उसने फिर भी अपना मुँह नहीं खोला!
"मेरे पीछे चलना है तकदीर तेरी!"
उस ने तब भी आँखें नहीं फेरीं!
"कुछ कहती क्यों नहीं?
क्या मुँह में जुबां नहीं?"
उस ने फिर भी कुछ न कही!
अचानक मुड कर देखा,
तो पैरों तले ज़मीन निकल गयी!
वो लहू-लुहान पैरों से,
उस के साथ चल रही थी!
फिर वो उस से आगे निकल गयी!
उस की हिम्मत जवाब दे गयी!
जानता था अब न रोक पायेगा उसे,
क्योंकि वो चल पड़ी थी उन ख्वाबों के पीछे,
जो थे कब से उस के मन में बसे!
July 22, 2011 at 1:25 P.M.
वो सुनती रही!
वो शब्दों के नश्तर चलाता रहा,
वो चुप सहती रही!
"मेरी बांदी है तू," वो बोला!
उसने फिर भी अपना मुँह नहीं खोला!
"मेरे पीछे चलना है तकदीर तेरी!"
उस ने तब भी आँखें नहीं फेरीं!
"कुछ कहती क्यों नहीं?
क्या मुँह में जुबां नहीं?"
उस ने फिर भी कुछ न कही!
अचानक मुड कर देखा,
तो पैरों तले ज़मीन निकल गयी!
वो लहू-लुहान पैरों से,
उस के साथ चल रही थी!
फिर वो उस से आगे निकल गयी!
उस की हिम्मत जवाब दे गयी!
जानता था अब न रोक पायेगा उसे,
क्योंकि वो चल पड़ी थी उन ख्वाबों के पीछे,
जो थे कब से उस के मन में बसे!
July 22, 2011 at 1:25 P.M.
मेरी कविता......
रूढ़ीवाद तले दबी मेरी कविता,
ढूँढती अपनी अस्मिता!
हर शख्स इसका गला घोंटने को तत्पर,
सब जुटें हैं इसको मारने परस्पर!
नहीं चाहते कि इसकी आवाज़ हो,
माँगते इसका अस्तित्व ख़त्म हो!
आवाज़ होगी तो ध्यान भी देना होगा,
इसे सुन कुछ करना होगा!
कहते हैं चुप रहो,
सब मुँह बंद किये सहो!
तुम्हें हक नहीं कि तुम कुछ कहो,
तुम केवल अंतर्मन के बंद कमरों में रहो!
मैं कैसे अपनी कविता की आवाज़ बंद कर दूं,
क्यों न उसे बाहर आने दूं?
मेरी कविता मेरी पहचान है,
मेरे साँस लेने का सामान है!
दबा लो जितना चाहे मेरी कविता को,
वो बाहर आएगी तुम्हें झंझोड़ने को!
बच न पाओगे उसकी आवाज़ से,
भेद देगी तुम्हें अपने अंदाज़ से!
अब दबा न पाओगे मेरी कविता को,
तुम चाहे जितनी कोशिश कर लो!
मेरी कविता है तो मैं हूँ,
और मैं हूँ तो संसार है!!!!
July 20, 2011 at 11:57 A.M.
ढूँढती अपनी अस्मिता!
हर शख्स इसका गला घोंटने को तत्पर,
सब जुटें हैं इसको मारने परस्पर!
नहीं चाहते कि इसकी आवाज़ हो,
माँगते इसका अस्तित्व ख़त्म हो!
आवाज़ होगी तो ध्यान भी देना होगा,
इसे सुन कुछ करना होगा!
कहते हैं चुप रहो,
सब मुँह बंद किये सहो!
तुम्हें हक नहीं कि तुम कुछ कहो,
तुम केवल अंतर्मन के बंद कमरों में रहो!
मैं कैसे अपनी कविता की आवाज़ बंद कर दूं,
क्यों न उसे बाहर आने दूं?
मेरी कविता मेरी पहचान है,
मेरे साँस लेने का सामान है!
दबा लो जितना चाहे मेरी कविता को,
वो बाहर आएगी तुम्हें झंझोड़ने को!
बच न पाओगे उसकी आवाज़ से,
भेद देगी तुम्हें अपने अंदाज़ से!
अब दबा न पाओगे मेरी कविता को,
तुम चाहे जितनी कोशिश कर लो!
मेरी कविता है तो मैं हूँ,
और मैं हूँ तो संसार है!!!!
July 20, 2011 at 11:57 A.M.
राजीव---ये सब क्या है? क्यों है?
राजीव---ये सब क्या है? क्यों है?
नीनू---इस लिए क्योंकि हमें इसी तरह इस जीवन को जीना है!
राजीव---तुम, तुम क्यों हो?
मैं मैं क्यों हूँ?
नीनू----तुम और मैं हैं तभी तो यह दुनिया है,
नहीं तो सब वीराना है!
राजीव---सब कुछ अजीब है, जिस का जैसा नसीब है!
वही वो पता है, कुछ न ले जाता है!
अपना अपना नसीब है,
कोई गरीब है, कोई अमीर है!
कोई भूखा रहता है,
कोई खता खीर है!
नीनू----ईश्वर की बनायी दुनिया है,
लेता भी वही और वही देता है!
जो नसीब है वही मिलता है,
इंसान के चाहने से क्या होता है!
राजीव---हम सब कठपुतली हैं,
डोर उस के हाथ है!
दिखता किसी को भी नहीं,
पर हर पल साथ है!
किसी को बनाता है,
किसी का विनाश है!
नीनू---ऐसी ही दुनिया है
ऐसे ही चलेगी
हमें तो बस चलना है
डोर चाहे उसके हाथ है!!!!
July 19, 2011 at 6:28 P.M.
नीनू---इस लिए क्योंकि हमें इसी तरह इस जीवन को जीना है!
राजीव---तुम, तुम क्यों हो?
मैं मैं क्यों हूँ?
नीनू----तुम और मैं हैं तभी तो यह दुनिया है,
नहीं तो सब वीराना है!
राजीव---सब कुछ अजीब है, जिस का जैसा नसीब है!
वही वो पता है, कुछ न ले जाता है!
अपना अपना नसीब है,
कोई गरीब है, कोई अमीर है!
कोई भूखा रहता है,
कोई खता खीर है!
नीनू----ईश्वर की बनायी दुनिया है,
लेता भी वही और वही देता है!
जो नसीब है वही मिलता है,
इंसान के चाहने से क्या होता है!
राजीव---हम सब कठपुतली हैं,
डोर उस के हाथ है!
दिखता किसी को भी नहीं,
पर हर पल साथ है!
किसी को बनाता है,
किसी का विनाश है!
नीनू---ऐसी ही दुनिया है
ऐसे ही चलेगी
हमें तो बस चलना है
डोर चाहे उसके हाथ है!!!!
July 19, 2011 at 6:28 P.M.
Wednesday, July 20, 2011
मेरी कविता....
रूढ़ीवाद तले दबी मेरी कविता,
ढूँढती अपनी अस्मिता!
हर शख्स इसका गला घोंटने को तत्पर,
सब जुटें हैं इसको मारने परस्पर!
नहीं चाहते कि इसकी आवाज़ हो,
माँगते इसका अस्तित्व ख़त्म हो!
आवाज़ होगी तो ध्यान भी देना होगा,
इसे सुन कुछ करना होगा!
कहते हैं चुप रहो,
सब मुँह बंद किये सहो!
तुम्हें हक नहीं कि तुम कुछ कहो,
तुम केवल अंतर्मन के बंद कमरों में रहो!
मैं कैसे अपनी कविता की आवाज़ बंद कर दूं,
क्यों न उसे बाहर आने दूं?
मेरी कविता मेरी पहचान है,
मेरे साँस लेने का सामान है!
दबा लो जितना चाहे मेरी कविता को,
वो बाहर आएगी तुम्हें झंझोड़ने को!
बच न पाओगे उसकी आवाज़ से,
भेद देगी तुम्हें अपने अंदाज़ से!
अब दबा न पाओगे मेरी कविता को,
तुम चाहे जितनी कोशिश कर लो!
मेरी कविता है तो मैं हूँ,
और मैं हूँ तो संसार है!!!!
July 20, 2011 at 11.53 A.M.
ढूँढती अपनी अस्मिता!
हर शख्स इसका गला घोंटने को तत्पर,
सब जुटें हैं इसको मारने परस्पर!
नहीं चाहते कि इसकी आवाज़ हो,
माँगते इसका अस्तित्व ख़त्म हो!
आवाज़ होगी तो ध्यान भी देना होगा,
इसे सुन कुछ करना होगा!
कहते हैं चुप रहो,
सब मुँह बंद किये सहो!
तुम्हें हक नहीं कि तुम कुछ कहो,
तुम केवल अंतर्मन के बंद कमरों में रहो!
मैं कैसे अपनी कविता की आवाज़ बंद कर दूं,
क्यों न उसे बाहर आने दूं?
मेरी कविता मेरी पहचान है,
मेरे साँस लेने का सामान है!
दबा लो जितना चाहे मेरी कविता को,
वो बाहर आएगी तुम्हें झंझोड़ने को!
बच न पाओगे उसकी आवाज़ से,
भेद देगी तुम्हें अपने अंदाज़ से!
अब दबा न पाओगे मेरी कविता को,
तुम चाहे जितनी कोशिश कर लो!
मेरी कविता है तो मैं हूँ,
और मैं हूँ तो संसार है!!!!
July 20, 2011 at 11.53 A.M.
Monday, July 18, 2011
लम्हा लम्हा गुज़र बने ख्वाब.....
तुम्हारे साथ बिताये अच्छे-बुरे लम्हे,
आज भी मुझे गुद-गुदा जाते हैं!
हर लम्हा एक मीठी याद,
कुछ अपने में लिए कडवी, खट्टी याद!
कुछ हँसाते लम्हे, कुछ रुलाते,
सब मुझे हैं याद आते!
तुम्हारा नाम याद करते ही,
होठों पे खिल जाती है हँसी सी!
गहरे आसमान पर सितारों का निखार है,
जानती हूँ कि तुम भी उन्हीं सितारों को देख रहे हो!
आँखें बंद कर दिल खुश होता है,
कि ख्वाबों में तुम आओगे, मुझे है यकीं!
ख्वाबों में इक बार फिर जीती हूँ,
तुन्हारे साथ बिताया हर लम्हा!
होठों से लेती हूँ तुम्हारा नाम,
हवा के परों पर सवार,
जब तुम तक पहुँचता है,
क्या तुम भी मुस्कुराते हो?
हवा फुसफुसाती है तुम्हारा नाम,
हर लम्हे में बसी है तुम्हारी याद!
लम्हे बन गए हैं ख्वाब,
ख्वाब हैं लम्हे!
अब तो आ जाओ मेरे पास,
कि ख्वाब हो हकीकत,
और हर लम्हा हो लाजवाब!!!!
July 18, 2011 at 8.39 P.M.
आज भी मुझे गुद-गुदा जाते हैं!
हर लम्हा एक मीठी याद,
कुछ अपने में लिए कडवी, खट्टी याद!
कुछ हँसाते लम्हे, कुछ रुलाते,
सब मुझे हैं याद आते!
तुम्हारा नाम याद करते ही,
होठों पे खिल जाती है हँसी सी!
गहरे आसमान पर सितारों का निखार है,
जानती हूँ कि तुम भी उन्हीं सितारों को देख रहे हो!
आँखें बंद कर दिल खुश होता है,
कि ख्वाबों में तुम आओगे, मुझे है यकीं!
ख्वाबों में इक बार फिर जीती हूँ,
तुन्हारे साथ बिताया हर लम्हा!
होठों से लेती हूँ तुम्हारा नाम,
हवा के परों पर सवार,
जब तुम तक पहुँचता है,
क्या तुम भी मुस्कुराते हो?
हवा फुसफुसाती है तुम्हारा नाम,
हर लम्हे में बसी है तुम्हारी याद!
लम्हे बन गए हैं ख्वाब,
ख्वाब हैं लम्हे!
अब तो आ जाओ मेरे पास,
कि ख्वाब हो हकीकत,
और हर लम्हा हो लाजवाब!!!!
July 18, 2011 at 8.39 P.M.
झरोखा
बंद कमरे में क्षत-विक्षित पड़ी नारी
तार-तार, लहू-लुहान,
हसरत से उस झरोखे को ताकती,
जिस में से आया था आज़ादी का झोंका कभी!
आज मर्द ने फिर से अपनी मर्दानगी दिखाई,
उस झरोखे को बंद कर अपनी ताक़त दिखाई!
कहा, "तेरी नियति यही है,
तू बंद कमरे में रह!"
घुट-घुट मरती रही वो,
खून के आंसूं पीती रही वो!
खुली हवा में सांस लेना चाहती थी वो,
आज केवल मर्यादा निभाती,
जीना भूल चुकी है वो!!!
July 14, 2011 at 12:14 P.M.
[this poem is inspired by Maya Mrig's post---बंद कमरे में गलती से छूट गया झरोखा आज बंद कर दिया, अब तू रक्षित है, यह तेरी मर्यादा है स्त्री....Thursday(July 14, 2011) at 10:26a.m.]
तार-तार, लहू-लुहान,
हसरत से उस झरोखे को ताकती,
जिस में से आया था आज़ादी का झोंका कभी!
आज मर्द ने फिर से अपनी मर्दानगी दिखाई,
उस झरोखे को बंद कर अपनी ताक़त दिखाई!
कहा, "तेरी नियति यही है,
तू बंद कमरे में रह!"
घुट-घुट मरती रही वो,
खून के आंसूं पीती रही वो!
खुली हवा में सांस लेना चाहती थी वो,
आज केवल मर्यादा निभाती,
जीना भूल चुकी है वो!!!
July 14, 2011 at 12:14 P.M.
[this poem is inspired by Maya Mrig's post---बंद कमरे में गलती से छूट गया झरोखा आज बंद कर दिया, अब तू रक्षित है, यह तेरी मर्यादा है स्त्री....Thursday(July 14, 2011) at 10:26a.m.]
तुम्हारी खुशबू ........
महसूस करता हूँ उस खुशबू को आज भी,
जो थी मेरे साथ कभी!
सोचा था ता-उम्र मेरे साथ रहेगी,
मेरी ख्वाहिश दिल में ही रही!
आज हूँ सोचता,
बचपना था उस बात में दीखता!
आज इस मोड़ पर,
जानता हूँ तुम्हारी खुशबू मेरे साथ है!
हवा के हर झोंके में,
हर फूल की खुशबू में,
पत्तों की सरसराहट में,
तुम्हारी सांस की खुशबू है!
बारिश की हर बूँद में,
ओस की एक-एक बूँद में,
तुम्हारी खुशबू है!
तुम्हारी खुशबू के झोंके,
आज भी हवा के झोंकों संग,
मेरे साथ हैं,
हमेशा के लिए!!!!
July 18, 2011 at 10.57 A.M.
महसूस करती हूँ उस खुशबू को आज भी,
जो थी मेरे साथ कभी!
सोचा था ता-उम्र मेरे साथ रहेगी,
मेरी ख्वाहिश दिल में ही रही!
आज हूँ सोचती,
बचपना था उस बात में दीखता!
आज इस मोड़ पर,
जानती हूँ तुम्हारी खुशबू मेरे साथ है!
हवा के हर झोंके में,
हर फूल की खुशबू में,
पत्तों की सरसराहट में,
तुम्हारी सांस की खुशबू है!
बारिश की हर बूँद में,
ओस की एक-एक बूँद में,
तुम्हारी खुशबू है!
तुम्हारी खुशबू के झोंके,
आज भी हवा के झोंकों संग,
मेरे साथ हैं,
हमेशा के लिए!!!!
जो थी मेरे साथ कभी!
सोचा था ता-उम्र मेरे साथ रहेगी,
मेरी ख्वाहिश दिल में ही रही!
आज हूँ सोचता,
बचपना था उस बात में दीखता!
आज इस मोड़ पर,
जानता हूँ तुम्हारी खुशबू मेरे साथ है!
हवा के हर झोंके में,
हर फूल की खुशबू में,
पत्तों की सरसराहट में,
तुम्हारी सांस की खुशबू है!
बारिश की हर बूँद में,
ओस की एक-एक बूँद में,
तुम्हारी खुशबू है!
तुम्हारी खुशबू के झोंके,
आज भी हवा के झोंकों संग,
मेरे साथ हैं,
हमेशा के लिए!!!!
July 18, 2011 at 10.57 A.M.
महसूस करती हूँ उस खुशबू को आज भी,
जो थी मेरे साथ कभी!
सोचा था ता-उम्र मेरे साथ रहेगी,
मेरी ख्वाहिश दिल में ही रही!
आज हूँ सोचती,
बचपना था उस बात में दीखता!
आज इस मोड़ पर,
जानती हूँ तुम्हारी खुशबू मेरे साथ है!
हवा के हर झोंके में,
हर फूल की खुशबू में,
पत्तों की सरसराहट में,
तुम्हारी सांस की खुशबू है!
बारिश की हर बूँद में,
ओस की एक-एक बूँद में,
तुम्हारी खुशबू है!
तुम्हारी खुशबू के झोंके,
आज भी हवा के झोंकों संग,
मेरे साथ हैं,
हमेशा के लिए!!!!
Sunday, July 10, 2011
मैं रेत, वो पानी.....
उसके होने से मैं हूँ,
वो नहीं तो अपना वजूद ढूँढता हूँ!
उसके होने से आबाद हूँ,
आज उसके जाने से जर्जर पड़ा हूँ!
तपती रेत से पड़े छालों में इतनी तासीर न थी,
जितने गहरे ज़ख्म उसके जाने ने दिए!
आज जब वो नहीं तो मेरा अस्तित्व नहीं,
बांसुरी बिन कान्हा, कान्हा नहीं!
मैं रेत, वो पानी,
मेरे ऊपर गिरती और विलुप्त हो जाती!
सोचता था ठंडक देगी मुझको,
चली गयी और झुलसा मुझको!
आज वो नहीं,
तो कुछ नहीं!
जानता था रेत और पानी का मिलन न होगा कभी,
पर दिल कहता था थोड़ी देर देख ले अभी!
अब मैं हूँ और मेरी तन्हाई,
और जिसे कभी मेरी याद न आई,
आज उसे याद कर रोता हूँ अकेले में!!!
July 10, 2011 at 12.44 A.M.
PART----II
रेत पर गिर पानी उस में समां जाएगा
उस में विलीन हो, उसका हिस्सा बन जाएगा!
फिर न पानी रहेगा, न रेत,
इक दूसरे का वजूद अपने में समेत,
दोनों हो जायेंगे एक!!!! (8.43 P.M.)
Part III
जब मिल जायेंगे दोनों, रेत और पानी,
लिखेंगे फिर नयी कहानी!
पानी समां रेत में,
समझेगा खुद को गौर्वन्वित,
अपनी हस्ती मिटा,
उसकी हस्ती में मिल,
रहेगा सदा हर्षित!!! (8.52 P.M.)
वो नहीं तो अपना वजूद ढूँढता हूँ!
उसके होने से आबाद हूँ,
आज उसके जाने से जर्जर पड़ा हूँ!
तपती रेत से पड़े छालों में इतनी तासीर न थी,
जितने गहरे ज़ख्म उसके जाने ने दिए!
आज जब वो नहीं तो मेरा अस्तित्व नहीं,
बांसुरी बिन कान्हा, कान्हा नहीं!
मैं रेत, वो पानी,
मेरे ऊपर गिरती और विलुप्त हो जाती!
सोचता था ठंडक देगी मुझको,
चली गयी और झुलसा मुझको!
आज वो नहीं,
तो कुछ नहीं!
जानता था रेत और पानी का मिलन न होगा कभी,
पर दिल कहता था थोड़ी देर देख ले अभी!
अब मैं हूँ और मेरी तन्हाई,
और जिसे कभी मेरी याद न आई,
आज उसे याद कर रोता हूँ अकेले में!!!
July 10, 2011 at 12.44 A.M.
PART----II
रेत पर गिर पानी उस में समां जाएगा
उस में विलीन हो, उसका हिस्सा बन जाएगा!
फिर न पानी रहेगा, न रेत,
इक दूसरे का वजूद अपने में समेत,
दोनों हो जायेंगे एक!!!! (8.43 P.M.)
Part III
जब मिल जायेंगे दोनों, रेत और पानी,
लिखेंगे फिर नयी कहानी!
पानी समां रेत में,
समझेगा खुद को गौर्वन्वित,
अपनी हस्ती मिटा,
उसकी हस्ती में मिल,
रहेगा सदा हर्षित!!! (8.52 P.M.)
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