मन में छिपा डर है
कहीं कोई रुसवा न हो जाए
नाप-टोल कर हर बात कहता हूँ
कहीं किसी का दिल न टूट जाए
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे के फेर में
ऐसा फसा हूँ
कि अपनी स्वाभाविकता
ही भूल चूका हूँ
रंग तो जैसे सब फीके पड़ चुके हैं
बे-रंग है जीवन
और उस से बे-रंग है जुबां
शायरी किसी कोने में पड़ी
सिसकियाँ ले रही है
अब तो बस जुबां हिला
बात करता हूँ
वरना शब्द तो जाने कहाँ खो गए हैं!!!!!
October3, 2010 at 9.41 A.M.
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