चारों और धुआं ही धुआं है
कुछ सुझाई नहीं देता
हाथ को नहीं पहचानता
एक काट रहा है
एक चीर कर साफ़ निकाल जाता है
काला गहरा धुंआ
परिंदों की चीत्कार
नदियों की पुकार
कोई सुन रहा है क्या?
अरे, देखो
वो एक पेड़
पड़ा है धरती पर
अब तो केवल ठूंठ ही बचा है
जड़ें तो कब की सूख चुकीं
धरती जर्जर हो चुकी
आसमान सफ़ेद हो चला
इंसान अभी भी सोया है
कुभ्करण की नींद
उठेगा तो कुछ नहीं बचेगा
शायद अभी जाग जाए
शायद धुंआ छट जाए!!!!
October 1, 2010 at 4.04 P.M.
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