पलकों के बादलों के पीछे छिपे आँसू
बाहर निकलने को बेकरार
कितने टूटे सपनों को
अपनी कोख में छिपाए
दर्द को भीतर समेटे हुए
उनके अन्दर कि चीख कोई सुन पा रहा है क्या?
असहाय हैं वो आँसू
बाहर नहीं निकल पा रहे
असहायता का नाग
फ़न उठाए
भीतर ही सारा ज़हर
उगलता जा रहा है
और, और ज़हरीली हो रही है काया
नीली पड़ती
स्वयं में घुलती
दम तोडती
इन आँसुयों को पी
मिटती, खिन-खिन होती
इक दिन ख़तम हो जायेगी
और मिट जायेंगे ये ज़हरीले आँसूं
छोड़ देंगे उसे
जिस के अन्दर दफ़न हैं
अपने सारे ज़हर के साथ....
October 28, 2010 at 2.32 P.M.
No comments:
Post a Comment