मेरा रब तो मेरे अन्दर था
जिसे मैं पूजता था!
पता नहीं कब बाहर आ
सौदा बन गया?
बाज़ार में टके भाव बिकने लगा!
इंसानों की मंडी में
बोली लगने लगी उसकी!
जितना बड़ा रुतबा
उतनी बड़ी बोली!!
अब मेरा रब भी सोचता है:
क्यों न इस दुनिया को छोड़
वापिस बैकुंठ आ जाऊं?
शायद इंसान की खरीदो-फरोख्त से
निकल अपना अस्तित्व वापिस पा पाऊं!!!
October 6, 2010 at 5.42 P.M.
No comments:
Post a Comment