मेरी भाषा के लोग,
मुझ जैसा सोच,
मेरी बोली बोलते हैं!
फिर क्यों एक-दूसरे की बात,
हमें समझ नहीं आती?
क्यों मेरे अन्दर की आज़ादी
पंख फडफडा
क्षत-विक्षत हो रही है?
बाहर तो बचेगी नहीं,
भीतर पिंजरे की सलाखों में
दम तोड़ रही है!
सब मुझ जैसे हैं
और मुझ जैसे ही लगते हैं
फिर भी मुझ से नहीं!
पैसे की खनक पर,
रुपये की थाप पर,
सब नाच रहे हैं!
ऐसे भोतिकवाद समाज में
मेरी आज़ादी का क्या मोल?
यह चिड़िया तो भीतर ही दम तोड़ेगी
चाहे मेरी ही भाषा बोलें मेरे लोग....
October 9, 2010 at 11.06 P.M.
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