लंबी चिमनी
सियाह कालिख से लथ-पथ
अपनी नाभि में दाँत गढ़ाए
काला धुंआ उगलती
जलती
धरती को जलाती,
नब्ज़ मंद होती,
सांस लेने को तरसती
चाँद भी धुंधला पड़ गया है
सितारे साथ छोड़ गए हैं
हवा का चेहरा मुरझाया सा है
शीशे में अपने अक्स को देखने को कतराता
बादल से खून के आँसूं क्यों बह रहे हैं?
सिक्कों की खनक बारम्बार
कोयल के गीत को दबा रही है
पक्षियों की चहचहाहट मौन है
पोधों के चेहरों पर हँसी नहीं है
यह सुन्दर वाटिका भी आज निशब्द है....
October 3, 2010 at 10.50 P.M.
translated an English poem into Hindi
No comments:
Post a Comment