तुमने कैसे भुला दिया,
भादों में लिखे मेरे शब्दों को!
मेरे शब्द,
जिन में रजनीगंधा की खुशबू पहले से मिली हुई थी!
तुम्हीं ने कहा था--
"न चाहते हुए भी उस खुशबू से खुद को बचा पाना आसान कहां था!"
अभी-अभी गये सावन के निशान बाकी थे,
आंचल में गीली मिट्टी की खुशबू ,
और बूंदों की नमी खूब-खूब भरी हुई थी!
मौसम मुस्कुरा कर मानो कह रहा था,
"उमंगों भरे दिन हैं,
मेरे शब्दों में लिपटे!"
मोहब्बत संभालकर रखी थी.
सावन की पहली बूंद की तरह,
हर शब्द में!
तुमने भुला दिया सब!
अब अमावस की काली रात कितनी चमकदार हो उठी थी,
बीच में न जाने कैसी सरहद उग आई थी,
न जाने कैसे कोई सिरा टूट गया था,
मानो बजते-बजते सितार का तार टूट गया हो...
(रोकने से इश्क रुकता नहीं, सिर्फ देह रुकती है........ तुम्हें मिटाना था, मिटा दिया..... मैं लिख कर भी सब मिटा नहीं पाई...............)
May 19, 2013 at 1.57 A.M.
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