हीर चली गई,
चला गया राँझा भी,
रह गया इक खाली मकान,
देखता था जिसे हर रोज़,
उस रास्ते से गुज़रते हुए!
हीर के न रहने से,
इक खालीपन था उस मकान में!
मन के अधूरे मकान में,
इक अधूरी कथा गूँज रही थी!
न छ्त, न कोई खिड़की!
सावन के ज़ख्म थे!
जिस्म के हर पोर को
छलनी कर,
दिखते थे हर सू!
अधूरे से इस मकान में,
इक सपना न पूरे होने की टीस थी,
फाँस सी चुभती थी, जो सीने में!
धूल में मिलता हर सपना,
मानो आँखों ने कभी देखा ही न हो!
इक आह, अभाव,
खालीपन, इक रुदन,
बंजर ज़मीं, इक बाँझ की तरह,
रोती, कलपती!
खालीपन में ग्रस्त,
अथाह पीड़ा!
हारे हुए जुआरी की तरह,
बरादरी से निकाले हुए व्यक्ति जैसे,
क्षत-विक्षित व्यक्ति की परछाईं जैसा,
मन का खाली मकान!
(अधूरा मकान गवाह है, अधूरी ख्वाहिशों और अधूरे सपनों का......अधूरे मकान में दफ़्न होता है कई आहों का इतिहास.............)
May 20, 2013 at 11.52 P.M.
चला गया राँझा भी,
रह गया इक खाली मकान,
देखता था जिसे हर रोज़,
उस रास्ते से गुज़रते हुए!
हीर के न रहने से,
इक खालीपन था उस मकान में!
मन के अधूरे मकान में,
इक अधूरी कथा गूँज रही थी!
न छ्त, न कोई खिड़की!
सावन के ज़ख्म थे!
जिस्म के हर पोर को
छलनी कर,
दिखते थे हर सू!
अधूरे से इस मकान में,
इक सपना न पूरे होने की टीस थी,
फाँस सी चुभती थी, जो सीने में!
धूल में मिलता हर सपना,
मानो आँखों ने कभी देखा ही न हो!
इक आह, अभाव,
खालीपन, इक रुदन,
बंजर ज़मीं, इक बाँझ की तरह,
रोती, कलपती!
खालीपन में ग्रस्त,
अथाह पीड़ा!
हारे हुए जुआरी की तरह,
बरादरी से निकाले हुए व्यक्ति जैसे,
क्षत-विक्षित व्यक्ति की परछाईं जैसा,
मन का खाली मकान!
(अधूरा मकान गवाह है, अधूरी ख्वाहिशों और अधूरे सपनों का......अधूरे मकान में दफ़्न होता है कई आहों का इतिहास.............)
May 20, 2013 at 11.52 P.M.
No comments:
Post a Comment