बीते कई सारे सीले दिनों के बाद,
तुम्हारे ख़त को फिर से पढ़ने के बाद,
धूप निकल आई थी!
अनमनी सी, कुछ सुस्त सी,
धीरे-धीरे रेंगते हुई,
दिल के हर कोने को अपना करने की कोशिश कर रही थी!
हौले-हौले तुम्हारे लिखे लफ़्ज़,
अंगड़ाई ले,
खिल कर,
मुझ पर छा गये!
कोने में छुपी सीली उदासियों को,
खींच-खींच कर बाहर निकाल,
बहुत सी बातें याद दिलाने लगे!!!
ध्यान आया,
कि मन के अहाते में,
न जाने कितने उदास दिन,
जाने कब से जमा हैं!
सोचा क्यों ना आज उन्हें,
कुछ धूप दिखा दी जाये!
चुन-चुन कर सारे कोने खंगाले,
पोटलियाँ निकलीं,
कैसे-कैसे दिन निकले थे,
लम्हे कैसे कैसे,
हर लम्हे की न जाने कितनी दास्तानें,
किसी सीले से दिन के पेहले में,
कोई आंसू छुपा बैठा था,
तो किसी पेहलू में गीली सी मुस्कुराहट,
तुम्हारे ख़त ने सब याद करवा दिया!!
(स्मृतियों की पांखें कितनी बड़ी होती हैं, पलक झपकते ही युगों की यात्रायें तय कर लेती हैं......)
((इधर तुम्हारे लफ़्ज़ों की धूप उदास दिनों को सेहला रही थी, उधर अतीत की स्मृतियाँ अतीत के बियाबाँ में भटक रही थी.........))
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