ताजमहल क्यों चाहा था तुमने?
वो तो मक़बरा है,
दफ़्न है मुमताज़,
और शाहजहाँ का प्यार उसमें!
हाँ, यकीनन
संगेमरमर की इमारत है,
खूबसूरती का बेहतरीन नमूना!
पर है मोहब्बत के अंत का प्रतीक भी!
क्या घोषणा कर दूँ,
हमारे प्रेम के अंत का,
तुम्हें ताजमहल दे कर?
क्या झूठी और भ्रामक थी,
प्रेम की सारी अवधारणाएं
जैसे सृष्टि के अंत की घोषणाएं?
प्रेम की सारी अवधारणाएं
जैसे सृष्टि के अंत की घोषणाएं?
रूठ गये क्यों तुम,
मेरे ताजमहल न देने पर?
मैं तो लाया हूँ तुम्हारे लिये,
तुलसी!
हरी-भरी तुलसी!
मेहकाएगी जो आंगन को!
अंत नहीं होगा हमारे प्रेम का!
रिश्तों की भीड़ से निकल कर
तुम्हारे पास आया था,
पीछे जाने का सवाल कहाँ था!
आगे जाने की भी इच्छा न थी!
तुम्हारे पास आया था,
पीछे जाने का सवाल कहाँ था!
आगे जाने की भी इच्छा न थी!
इन दोनों बिंदुओं के बीच
कहीं बैठ कर
तुम्हें प्रेम करना था!
कहीं बैठ कर
तुम्हें प्रेम करना था!
(ताजमहल और तुलसी के बीच का फासला अंतिम नहीं था........अंतिम कुछ भी नहीं होता-------)
May 28, 2013 at 11.12 A.M.
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