शून्य से उत्पन हो
शून्य में ही विलीन हो जाना है !
शून्य में सब है!
आनंद भी,
और शून्य की चीत्कार भी!
शून्य भीतर भी है
और बाहर भी!
शून्य निराकार का
आकार भी,
जो देता है जीवन!!!
August 29, 2010 at 11.54 A.M.
CLOSE TO ME
My friends,
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................
It feels good to have my own blog.....there are things which are close to my heart and things which have affected me one way or the other.....my thoughts,my desires,my aspirations,my fears my gods and my demons---you will find all of them here....I invite you to go through them and get a glimpse of my innermost feelings....................
Sunday, August 29, 2010
Saturday, August 28, 2010
Thursday, August 26, 2010
Saturday, August 21, 2010
सफ़ेद-पोशी
मैं क्यों कपडे पहनता?
मैं किस से क्या छिपाता?
मेरे भीतर जो है,
वो बाहर नहीं!
भीतर की सब बातें,
यदि बाहर आयें तो,
एक विवाद उठ खड़ा होगा!
भीतर छिपे राक्षस
बाहर आ उत्पात मचाएँ तो?
धरती लहू-लुहान हो जायेगी!
आसमान चीत्कार कर उठेगा!
मेरे अंतर्मन के द्वंद्व को,
कौन समझ पायेगा?
रहने दो इसे मेरे भीतर ही,
इसे बाहर मत आने दो!
ढका रहने दो इसे बाहरी कपड़ों से!
कुछ तो सफ़ेद-पोशी बनी रहने दो!
जो छिपा है उसे छिपा ही रहने दो!
मत छेड़ो,इसे भीतर ही रहने दो!!!!
August 21, 2010 at 6.52 P.M.
मैं किस से क्या छिपाता?
मेरे भीतर जो है,
वो बाहर नहीं!
भीतर की सब बातें,
यदि बाहर आयें तो,
एक विवाद उठ खड़ा होगा!
भीतर छिपे राक्षस
बाहर आ उत्पात मचाएँ तो?
धरती लहू-लुहान हो जायेगी!
आसमान चीत्कार कर उठेगा!
मेरे अंतर्मन के द्वंद्व को,
कौन समझ पायेगा?
रहने दो इसे मेरे भीतर ही,
इसे बाहर मत आने दो!
ढका रहने दो इसे बाहरी कपड़ों से!
कुछ तो सफ़ेद-पोशी बनी रहने दो!
जो छिपा है उसे छिपा ही रहने दो!
मत छेड़ो,इसे भीतर ही रहने दो!!!!
August 21, 2010 at 6.52 P.M.
Friday, August 20, 2010
आसमान की बुलुंद ऊँचाइयों में
बिना रोक-टोक के
स्वछन्द विचरता मन
आसमान के विस्तार को निहारता
पँखों के सहारे
यहाँ से वहाँ
आज़ाद घूमता
अपने आप में सोचता है--
ऐसी आज़ादी धरती पर क्यों नहीं?
क्यों बेड़ियों में
जकड़ा हूँ मैं?
क्यों नहीं कर सकता
स्वेच्छा से मैं
वो सब जो करना चाहता हूँ?
क्यों बंधन हैं सिर्फ मेरे लिए?
मैं नहीं मानना चाहता
इन बंधनों को!
मैं निकल कर इन जंजीरों से
यूँ ही स्वछन्द घूमना चाहता हूँ
खुले आकाश की तरह धरती पर!
August 20,2010 at 2.35 P.M.
बिना रोक-टोक के
स्वछन्द विचरता मन
आसमान के विस्तार को निहारता
पँखों के सहारे
यहाँ से वहाँ
आज़ाद घूमता
अपने आप में सोचता है--
ऐसी आज़ादी धरती पर क्यों नहीं?
क्यों बेड़ियों में
जकड़ा हूँ मैं?
क्यों नहीं कर सकता
स्वेच्छा से मैं
वो सब जो करना चाहता हूँ?
क्यों बंधन हैं सिर्फ मेरे लिए?
मैं नहीं मानना चाहता
इन बंधनों को!
मैं निकल कर इन जंजीरों से
यूँ ही स्वछन्द घूमना चाहता हूँ
खुले आकाश की तरह धरती पर!
August 20,2010 at 2.35 P.M.
Tuesday, August 17, 2010
Friday, August 6, 2010
लफ्ज़
रोज़ लफ़्ज़ों की इमारत बनाता हूँ
फिर उसमें साँसें फूँक उसे जिंदा करता हूँ
काली रात के अँधेरे में
वो डह जाती है
दिल-ए-नादाँ को समझाता हूँ
संभल जा,मान जा
पर दिल है कि संभलता ही नहीं
और अगले दिन फिर से लफ़्ज़ों की इमारत बनाता हूँ!!!!
August 06, 2010 at 12.16 A.M.
फिर उसमें साँसें फूँक उसे जिंदा करता हूँ
काली रात के अँधेरे में
वो डह जाती है
दिल-ए-नादाँ को समझाता हूँ
संभल जा,मान जा
पर दिल है कि संभलता ही नहीं
और अगले दिन फिर से लफ़्ज़ों की इमारत बनाता हूँ!!!!
August 06, 2010 at 12.16 A.M.
Monday, August 2, 2010
Sunday, August 1, 2010
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